भारत की रंगमंच परंपरा में यदि किसी व्यक्तित्व ने लोकसंस्कृति को आधुनिक रंगमंच से जोड़ने का ऐतिहासिक कार्य किया, तो वह नाम है — हबीब तनवीर। वे केवल एक रंगकर्मी नहीं थे, बल्कि एक विचार थे, एक आंदोलन थे, जो भारतीय रंगमंच को उसकी जड़ों से जोड़ते हुए विश्व मंच पर प्रतिष्ठित कर गए।
हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में हुआ था। उनका मूल नाम हबीब अहमद खान था। आरंभिक शिक्षा रायपुर और नागपुर में हुई, इसके बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बाद में मुंबई के ‘दी रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स’ (RADA) लंदन से रंगमंच की विधिवत शिक्षा प्राप्त की। इसी शिक्षा और अनुभव ने उन्हें एक वैश्विक दृष्टि दी, लेकिन उन्होंने अपने देश की मिट्टी की महक को कभी नहीं छोड़ा।
हबीब तनवीर ने सन् 1959 में ‘नया थियेटर’ की स्थापना की। इसके माध्यम से उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य शैली — नाचा — को आधुनिक थिएटर के साथ जोड़ा। उनकी सबसे प्रसिद्ध नाट्य कृति ‘चरणदास चोर’ रही, जो भारत ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित हुई। यह नाटक आज भी भारतीय रंगमंच का एक मील का पत्थर माना जाता है।
उन्होंने गाँवों के अनपढ़, लेकिन अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकारों को मंच पर लाकर यह सिद्ध किया कि रंगकला केवल प्रशिक्षण से नहीं, आत्मा से जुड़ी होती है। उनकी प्रस्तुतियाँ केवल मनोरंजन नहीं थीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना से परिपूर्ण होती थीं।
उन्होंने हिंदी रंगमंच को लोकभाषा, लोकधुन, और लोकसंवेदना से जोड़ा।
भारतीय रंगमंच को औपनिवेशिक और शहरी एकरसता से मुक्त किया।
ग्रामीण कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थान दिलाया।
नाटक को जनसंघर्ष और सत्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
हबीब तनवीर को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाज़ा गया। उन्हें पद्म श्री (1983) और पद्म भूषण (2002) जैसे उच्च भारतीय नागरिक सम्मान प्राप्त हुए। इसके अलावा वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे और उन्होंने रंगमंच को लेकर सदन में कई गंभीर बहसें छेड़ीं।
हबीब तनवीर का निधन 8 जून 2009 को हुआ। उनके जाने से न केवल एक रंगकर्मी का अंत हुआ, बल्कि भारतीय रंगमंच का एक युग समाप्त हो गया। लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है — नया थियेटर के मंच से, चरणदास चोर की गूंज से, और हर उस कलाकार के स्वप्न में, जो मंच को समाज का दर्पण मानता है।
हबीब तनवीर ने हमें यह सिखाया कि सच्चा रंगकर्म केवल अभिनय नहीं, बल्कि विचार और संवेदना का संगम है। आज जब हम उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद कर रहे हैं, तो यह अवसर केवल श्रद्धा का नहीं, बल्कि संकल्प का भी है — कि हम उनकी परंपरा को जीवित रखें, और लोककलाओं को उनके सम्मान के साथ आधुनिक युग में आगे बढ़ाएँ।
By: Naresh Agarwala, Asansol