*पिंगली वैंकैया जी की जयंती पर विशेष लेख (लेखिका: सोनिया | संपादन: नरेश कुमार अग्रवाला)*
2 अगस्त — यह दिन हर भारतीय के लिए गर्व और प्रेरणा का दिन है, क्योंकि यह उस महापुरुष की जयंती है जिसने हमें हमारी राष्ट्रीय पहचान दी — पिंगली वैंकैया। वह शख्स जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ऐसा प्रतीक रचा जो आज हर भारतीय के दिल में बसता है — हमारा तिरंगा।
एक साधारण जीवन, असाधारण योगदान
पिंगली वैंकैया जी का जन्म 2 अगस्त 1876 को वर्तमान आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम (तब मद्रास प्रेसिडेंसी) में हुआ था। वे बचपन से ही जिज्ञासु, कर्मठ और राष्ट्रभक्त थे। पढ़ाई के साथ-साथ वे भाषाविद्, भूविज्ञानी, शिक्षाविद् और सैन्य अधिकारी भी रहे। अंग्रेजों की फौज में रहते हुए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के मोर्चे पर महात्मा गांधी जी के साथ काम किया और वहीं से उनके जीवन का रुख स्वराज्य की ओर मुड़ गया।
राष्ट्रध्वज की खोज: एक लंबा संघर्ष
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह अनुभव किया गया कि भारत के पास कोई एकीकृत प्रतीक नहीं है जो सारे देश को एक सूत्र में बाँध सके। पिंगली वैंकैया जी ने इस कमी को गहराई से महसूस किया और भारत के लिए एक ध्वज के निर्माण का संकल्प लिया।
1916 से लेकर 1921 तक, वैंकैया जी ने ध्वज के विभिन्न रूपों पर गहन शोध किया। उन्होंने करीब 30 प्रकार के झंडों की रूपरेखा तैयार की। वे एक सच्चे वैज्ञानिक की तरह प्रतीकों, रंगों और उनके अर्थों को समझते थे।
1921 में विजयवाड़ा कांग्रेस अधिवेशन के दौरान, वैंकैया जी ने अपने डिज़ाइन का तिरंगा महात्मा गांधी को दिखाया — जिसमें दो रंग थे: लाल (हिंदू समुदाय के लिए) और हरा (मुस्लिम समुदाय के लिए)। गांधी जी ने सुझाव दिया कि इसमें सफेद रंग और चरखा भी जोड़ा जाए — सफेद अन्य समुदायों के लिए और चरखा आत्मनिर्भरता का प्रतीक।
तिरंगा बना हमारी पहचान
वैंकैया जी के प्रारूप को कई वर्षों तक संशोधित किया गया और अंततः 22 जुलाई 1947 को भारत की संविधान सभा ने उनके डिज़ाइन को थोड़ा संशोधित रूप में भारत के आधिकारिक राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया। उसमें चरखे की जगह अशोक चक्र को स्थान दिया गया, जो धर्म, नीति और प्रगति का प्रतीक है।
आज हमारा तिरंगा – गहरा केसरिया, सफेद और गहरा हरा – न केवल हमारी स्वतंत्रता का प्रतीक है, बल्कि एक समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और एकजुट भारत की पहचान भी है।
अस्वीकार्यता और गुमनामी में एक नायक
यह दुर्भाग्य की बात है कि वैंकैया जी का योगदान स्वतंत्रता के बाद भुला दिया गया। वे न तो किसी बड़े सरकारी पद पर रहे, न ही उन्हें वैसा सम्मान मिला जिसके वे हकदार थे। उन्होंने जीवन के अंतिम दिन गरीबी में बिताए और 4 जुलाई 1963 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
लेकिन आज, जब भी हम तिरंगे को फहराते हैं या उसे सीने से लगाते हैं, हम अनजाने में ही वैंकैया जी को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे होते हैं।
याद करें, सराहें, अपनाएं
उनकी जयंती पर यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम उन्हें याद करें, उनके विचारों और आदर्शों को समझें और देश के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाएं। वैंकैया जी ने हमें एक ध्वज दिया, अब हमें उसे ऊँचा रखना है — अपने विचारों, कर्मों और समाज के प्रति योगदान से।
उपसंहार
पिंगली वैंकैया केवल एक ध्वज-निर्माता नहीं थे — वे एक विचार थे, एक भावना थे, जो यह सिखाते हैं कि अगर संकल्प सच्चा हो तो कोई भी सामान्य नागरिक असाधारण परिवर्तन ला सकता है।
उनकी जयंती पर हम यही प्रण लें — तिरंगे की लाज, देश का मान — यही हो हमारा जीवन का अभिमान।