“वो लेखनी नहीं थी, कोई मशाल थी,
हर शब्द में जलती सवालों की ज्वाल थी।
जनजातियों की पीड़ा को जिसने जिया,
वो सिर्फ़ लेखिका नहीं, एक क्रांति की मिसाल थी।
नब्बे बसंत देखे, पर थकी नहीं कभी,
कागज़-कलम से लड़ी, तलवार उठाई नहीं कभी।
झारखंड, बंगाल, या आदिवासी वन,
हर दिल में बसती थी, वो माटी की धन।
ज्ञानपीठ की शोभा, जनआंदोलनों की ध्वनि,
हर वंचित की आवाज़, हर स्त्री की वाणी बनी।
उनके शब्दों में गूंजती थी कराहते गाँव की पुकार,
वो थी ‘हज़ार चौरासी की माँ’ – सच की अविचल धार।
आज दोपहर जब वो मौन हुईं,
वो स्याही भी रो पड़ी जो कभी न सूखी थी कहीं।
नमन तुम्हें हे ‘महाश्वेता’ – युगों तक अमर रहेगी ये कथा,
तुम्हारी आत्मा में बसती है संघर्ष की वो अदृश्य प्रथा।”
जाओ अब विश्राम करो, तुम्हारा कर्म अजर-अमर,
भारतभूमि की हर बेटी बोले –
“तेरे शब्दों में है मेरी नजर।”
सादर श्रद्धांजलि।
*सुशील कुमार सुमन*
अध्यक्ष, IOA