*“जब कोई पूछता है — “तुम अब तक कैसे बचे हो?”, तो उत्तर सीधा और सच्चा निकलता है — भगवान भरोसे!**
कोरोना के पहले चरण में भय की छाया थी, दूसरे चरण में चीखें गूंज रही थीं, तीसरे में ऑक्सीजन की कतारें थीं, और चौथे चरण में जीवन और मृत्यु का फासला महज कुछ सांसों में सिमट गया था। लेकिन हम बचे रहे — लाखों नहीं, करोड़ों मर गए, पर हम अब भी जीवित हैं। क्यों? उत्तर स्पष्ट है — भगवान भरोसे।
“साल 2020 के मार्च महीने से शुरू हुआ वह खौफनाक अध्याय, जब दुनिया थम गई। श्मशान घाटों की चिमनियाँ दिन-रात जल रही थीं। अस्पतालों के बाहर एंबुलेंस की कतारें और भीतर ऑक्सीजन के लिए हाहाकार। माँ-बाप अपने बच्चों की जान बचा न सके, बेटे अपने पिता को कांधों पर ले जाने से पहले पीपीई किट में रोते रहे। उस वक़्त दवा नहीं, व्यवस्था नहीं, निश्चिंतता नहीं — बस एक ही चीज़ थी — ईश्वर पर भरोसा।
कई लोगों की सच्ची कहानियाँ हैं — कोई रिक्शाचालक जिसकी पूरी कॉलोनी कोरोना की चपेट में आ गई, लेकिन वह संक्रमित होकर भी सामान्य रहा। एक महिला, जिसकी तीन पीढ़ियाँ चली गईं, लेकिन वह अकेले जीवन के संघर्ष में टिकी रही — क्योंकि उसे भरोसा था कि “भगवान सब देख रहा है।”
इतिहास गवाह है कि युद्धों ने सभ्यताओं को खाक में मिला दिया। और आज भी यह सिलसिला रुका नहीं।
फिलिस्तीन-इज़राइल युद्ध, जहां बच्चों के खिलौने तोड़ दिए गए, स्कूल मलबों में दब गए।
रूस-यूक्रेन युद्ध, जहां बर्फीले मैदानों में लहू बहता रहा, और लाखों लोग बेघर हुए।
इराक युद्ध, जिसने मानवता को ही प्रश्नचिह्न में बदल दिया।
इन सब में भी कुछ लोग बच निकले। बम उनके सिर पर गिरा नहीं, गोली उनके सीने को चीर न सकी। कैसे? — भगवान भरोसे।
एक यूक्रेनी माँ की कहानी याद आती है — जिसने अपने नवजात शिशु को फ्रिज के अंदर छुपा कर बचाया। वह खुद घायल हुई, लेकिन बच्चा बच गया। ऐसी घटनाएँ जब होती हैं तो मनुष्य चमत्कार शब्द को स्वीकार करता है।
*“भारत की त्रासदियाँ और चमत्कार”*
“हमारा देश भी अछूता नहीं रहा — न आपदा से, न दुर्भाग्य से।
ओडिशा रेल हादसा — तीन ट्रेनें भिड़ीं, 300 से अधिक मृत। लेकिन एक बच्चा ट्रेन के नीचे से जिंदा निकला।
पहलगाम आतंकी हमला — गोलियों की बौछार में एक बस ड्राइवर शहीद हुआ, मगर उसी बस में बैठी एक 5 साल की बच्ची सही-सलामत बच गई।
भारत-पाक युद्ध, जहां गोलियां बरसती रहीं, मगर कुछ सैनिक सही सलामत घर लौटे।
अहमदाबाद प्लेन क्रैश, जिसमें आग की लपटों के बीच एक नवविवाहित जोड़ा सुरक्षित निकला।
RCB की जीत के जश्न में मची भगदड़, दर्जनों घायल हुए, लेकिन कुछ लोग बाल-बाल बचे।
एक व्यक्ति जो भगदड़ में गिर गया था, लेकिन किसी ने उसे पैरों से खींचकर बाहर निकाला — वह कहता है, “मेरे बचने के पीछे कोई व्यक्ति नहीं था, बस भगवान ने भेजा था।”
कई लोग कह सकते हैं कि यह संयोग है, विज्ञान है, इम्यूनिटी है, संरचनात्मक गणित है — पर जब विज्ञान चुप हो जाए, जब तकनीक काम न करे, जब दवाएं विफल हों — तब क्या शेष बचता है? — भरोसा। और वह भरोसा केवल एक पर — ईश्वर पर।
कोई वैक्सीनेशन के बाद भी नहीं बचा, कोई बिना वैक्सीन लिए भी जीवित रहा। कुछ लोगों की रिपोर्ट बार-बार निगेटिव आती रही, मगर लक्षण बने रहे। डॉक्टर कहते थे, “यह मेडिकल मिस्ट्री है।” पर आम आदमी कहता था — “भगवान का चमत्कार है।”
*“गीता कहती है”* — “योगक्षेमं वहाम्यहम्” — मैं अपने भक्तों के योग (संपादन) और क्षेम (सुरक्षा) की जिम्मेदारी लेता हूँ।”
*“बाइबिल में है”* — “Though I walk through the valley of the shadow of death, I will fear no evil: for thou art with me.”
*कुरान शरीफ में लिखा है* — “Allah is with those who are patient.”
धर्मग्रंथों की इन पंक्तियों में जो साम्यता है वह यह कि जब मानव का प्रयास समाप्त हो जाता है, तब ईश्वर की कृपा आरंभ होती है।
*“भगवान भरोसे जीवन का दर्शन”*
‘भगवान भरोसे’ कोई लाचारी नहीं, यह भारतीय मानस का सबसे सशक्त अस्त्र है। हम जो हैं, जहां हैं — वह सब ईश्वर की इच्छा का परिणाम है।
जब नौकरी नहीं लगती, तो हम कहते हैं — “भगवान ने कुछ और बेहतर सोच रखा होगा।”
जब एक्ज़ाम अच्छा नहीं जाता, तो माँ कहती है — “ईश्वर कृपा करेगा।”
*जब ट्रेन छूट जाती है, और बाद में पता चलता है कि दुर्घटनाग्रस्त हो गई — हम सिहर उठते हैं — “ईश्वर ने ही बचाया।”*
*“जब सब छूट जाए तो भगवान साथ होता है”*
भगवान भरोसे का अर्थ यह नहीं कि प्रयास न करें। यह तो उस आख़िरी डोर का नाम है, जब सब हाथों से छूट जाता है, तब वही डोर हमें गिरने नहीं देती।
जब घर में भूख हो, और अचानक कोई भिक्षा दे जाए — तब वह भगवान भरोसे ही होता है।
जब ऑपरेशन थिएटर में डॉक्टर कह दे — “अब सब ऊपर वाले पर निर्भर है”, तब वह ईश्वर ही निर्णय लेता है।
जब किसी बिछड़े बच्चे को कई वर्षों बाद माता-पिता मिल जाते हैं — तो वह व्यवस्था नहीं, चमत्कार होता है।
*“क्या भगवान भरोसे होना गलत है?”*
“नहीं, यह कदापि गलत नहीं। यह तो वह आस्था है जो इंसान को मानवता से जोड़ती है। एक गरीब मजदूर रोज ईंट ढोता है और कहता है — “मालिक देंगे तो मिलेगा।” यह कोई दीनता नहीं — यह महानता है।
आज जब दुनिया में युद्ध, महामारी, आतंकवाद, दुर्घटनाएं, भूकंप, बाढ़, नफरत, राजनीतिक स्वार्थ और सामाजिक विघटन की लहरें एक साथ हिला रही हैं — तब भी अगर कोई बचा है, मुस्कुरा रहा है, आगे बढ़ रहा है — तो वह सिर्फ भगवान भरोसे ही संभव है।
“भगवान भरोसे” — यह वाक्यांश आज के समय में हमारी सबसे बड़ी ढाल है। यह विश्वास नहीं होता, यह जीवन का प्रमाण है। हम बचे हैं, इसलिए बोल सकते हैं। बोल सकते हैं, इसलिए लिख सकते हैं। लिख सकते हैं, इसलिए सोच सकते हैं। और यह सब इसलिए संभव है क्योंकि कोई ऊपर बैठा है जो कहता है — *“तू चल, मैं साथ हूँ।”*
जब भी लगे कि सब खत्म हो गया है — आँख बंद कर बस इतना कहिए — “भगवान भरोसे।” शायद अगली सुबह फिर एक नया सवेरा लेकर आए।
“मैं चला अंधेरे में,
पर कोई दीपक जलता रहा —
मैं गिरा कई बार,
पर कोई थामता रहा —
जब सबने मुँह मोड़ा,
तब भी एक नज़र देखती रही —
और जब मैं टूटा,
तो उसी ने जोड़ा —
यह कौन है? यह वही है —
भगवान… और उसका भरोसा।”
*“जय हिंद। जय मानवता। जय विश्वास।”*
लेखक: *“सुशील कुमार सुमन”*
अध्यक्ष, आईओए
सेल आईएसपी बर्नपुर