Dastak Jo Pahunchey Har Ghar Tak

Share on facebook
Share on twitter
Share on whatsapp
Share on email

*”अपकी बरस सावन में !..”*

Share on facebook
Share on twitter
Share on whatsapp
Share on email
ASANSOL DASTAK ONLINE DESK

ASANSOL DASTAK ONLINE DESK

“मुन्‍नार के चित्रापुरम में आज सुबह की हवा थोड़ी अलग थी।
आसमान पर बादलों की परत थी, और पहाड़ियों में से उठती धुंध कुछ ऐसे फैल रही थी…
मानो समय की पुरानी किताबों पर जमा धूल को धीरे-धीरे कोई हथेली साफ कर रही हो।

सावन का पहला दिन था।

डॉ. श्रीधरन अपने आवास की छोटी-सी बरामदे में अकेले बैठे थे।
दूधिया धुंध के बीच हरी-हरी वादियाँ दूर तक पसरी थीं।
टिन की छत पर गिरती बारिश की पहली बूँदें—
उनके दिल के किसी पुराने कोने में दबी हुई यादों को जगाने लगीं।

आज वे डॉ. श्रीधरन, 58 वर्ष की उम्र में मुन्‍नार के पहाड़ों पर इस पहाड़ी घर में अकेले थे।
साथ थे बस—
उनकी यादें, उनके पछतावे, उनका प्रेम, उनकी हक़ीक़त…
और उनका सावन।

बरामदे की रेलिंग पर हाथ टिकाए वे दूर चाय के बागानों को निहारते रहे।
बारिश की बूँदें गिरतीं…
और हर बूँद उनके भीतर छिपे किसी बीते साल को छूकर वापस लौट आती।

उस वक्त उनका मन फुसफुसाया—

“कीर्थना… ये सावन फिर आ गया।”

उनका दिल हल्का-सा काँपा।

वह नाम…
जो कभी उनके जीवन में उजास बनकर आया था,
फिर दर्द बनकर चला गया,
और फिर… याद बनकर रह गया।

वो साल 1992 था।

युवा डॉ. श्रीधरन अभी-अभी मेडिकल कॉलेज पूरा करके चित्रापुरम के छोटे से क्लिनिक में आयुर्वेदिक चिकित्सक की सेवा शुरू कर चुके थे।
तभी उनकी मुलाकात हुई—

कीर्थना से।

कीर्थना—
चाँदी जैसे मोती की आँखें,
दूधिया धुंध जैसी मुस्कान,
साफ़, सरल, और संगीत जैसी आवाज़।

वह चित्रापुरम के पास के एक स्कूल में नृत्य-शिक्षिका थी।
पहली बार वह क्लिनिक में आई थी—
सिर पर हल्का बुखार, और हाथ में चाय के बागान से लाई हुई वनफूलों की गठरी।

उस दिन मुन्‍नार में सावन शुरू हुआ था।
और उसी दिन दो अनजाने दिलों में कुछ पहली बूँदें गिर गई थीं।

श्रीधरन ने उसकी नब्ज़ पकड़ी, और दिल की धड़कनें खुद तेज़ हो गईं।
कीर्थना हँसी—
“डॉक्टर साहिब, मेरी तबीयत ठीक कर दीजिए… कल मेरे बच्चों की प्रस्तुति है।”

उनकी आँखों में वह चमक थी, जो किसी को भी जीवनभर याद रह जाए।

अगले कुछ महीनों तक—

कीर्थना चाय के फूल लाकर देती,

श्रीधरन उसकी चाय बनाकर पिलाते,

वह पहाड़ियों से कहानियाँ सुनाती,

और वह उसके ज़ख्मों को दवा से नहीं, अपने शब्दों से भरता।

धीरे-धीरे उनका रिश्ता दोस्ती से आगे बढ़ा।
लोग कहते थे—

“चित्रापुरम का हर सावन कीर्थना और श्रीधरन का नाम साथ लेकर बहता है।”

पर…
हर प्रेम कहानी की तरह, नियति भी एक मोड़ लेकर आई।

कीर्थना एक गरीब चाय प्लांटेशन परिवार से थी।
घर में आर्थिक जिम्मेदारियाँ ज़्यादा थीं—
उसके भाई पढ़ रहे थे,
माता बीमार थी।

उधर, श्रीधरन के परिवार की भी अपनी उम्मीदें थीं—
उनके पिता एक सरकारी अधिकारी थे
और चाहते थे कि उनका बेटा
देविका—एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की से विवाह करे।

देविका सुंदर थी, साधन सम्पन्न थी, परिवार बड़ा था।
सब कुछ आसान था—
बस दिल…
उसमें कीर्थना बसी हुई थी।

एक शाम कीर्थना ने कहा—

“मैं आपकी ज़िंदगी कठिन नहीं बनना चाहती, श्रीधर…”
उसकी आँखों में पानी था।
“आपके परिवार की खुशी आपके साथ हो… मैं आपके सावन बनकर खुश हूँ,
सिर्फ इतना कि आप मुझे याद रखेंगे।”

उन्होंने बहुत समझाया…
लेकिन प्रेम कभी-कभी त्याग मांग लेता है—
और कीर्थना ने वह त्याग कर दिया।

श्रीधरन और देविका का विवाह हो गया।

देविका, एक समझदार पत्नी थी।
धीरे-धीरे उसकी मुस्कान ने श्रीधरन के जीवन में जगह बना ली।
उनके दो बच्चे हुए—

बेटा जिथिन,

बेटी जिथु।

घर हँसी से भरने लगा।
देविका ने कभी श्रीधरन से उनके अतीत के बारे में प्रश्न नहीं किया।
शायद वह महसूस करती थी…
कि किसी की स्मृति में कहीं कोई परछाई है।

पर जीवन चलता रहा—
जिम्मेदारियाँ बढ़ती रहीं,
बच्चे बड़े हुए,
क्लिनिक मशहूर हुआ।

कीर्थना कहीं दूर, किसी और गाँव चली गई।
वह भी विवाह कर चुकी थी।
लेकिन उसकी आँखों का वह धुंध-सा सौंदर्य
श्रीधरन के दिल में अभी तक जिंदा था।

अब, आज—

जब हवाओं में वही ठंडक थी,
जब चाय की पत्तियों पर बारिश मोतियों की तरह गिरती थी,
जब हवा में नीलगिरी की खुशबू थी,

डॉ. श्रीधरन अकेले बैठे थे।

देविका बच्चों के साथ त्रिवेंद्रम चली गई थी
एक रिश्तेदार की शादी में।

वे बरामदे में बैठे
सावन को देखते रहे—
और अतीत की किताब खुलती गई।

तभी अचानक…
एक नीला लिफाफा हवा में उड़कर उनके पैरों के पास आ गिरा।
यह पोस्टमैन सुबह छोड़ गया था।

लिफाफे पर लिखा था—

“कीर्थना”

श्रीधरन के हाथ काँप गए।
दिल धड़कने लगा।
उन्होंने लिफाफा खोला।

पत्र छोटा था।

“प्रिय श्रीधर,
मुन्‍नार में सावन शुरू हुआ होगा…
इस मौसम में हमेशा आपकी याद आती है।

शायद यह मेरा आखिरी पत्र है।
मेरी तबीयत अब पहले जैसी नहीं।
मैं चाहती हूँ कि आप जानते रहें—
कि मैं कभी दुखी नहीं रही।

आपका प्यार मैंने अपने जीवन का सौभाग्य समझकर जिया।
देविका बहुत अच्छी है…
उसने आपको एक सुंदर परिवार दिया—
मैं खुश हूँ।

यदि कभी चित्रापुरम की पहाड़ियों में धुंध घिरे
तो समझिए—
मैं पास ही हूँ।

आपकी
कीर्थना”

पत्र पर कुछ बूँदें पड़ी थीं—
शायद बारिश की,
और शायद आँसुओं की।

श्रीधरन ने पत्र सीने से लगा लिया।

बारिश अब तेज़ हो चुकी थी।
पर उनकी आँखों में जो भीग रहा था—
वह मौसम नहीं था।
वह यादों का समुद्र था।

तभी पीछे से देविका ने आवाज़ दी—

“श्रीधर…?
इतनी बारिश में बाहर क्यों बैठे हैं?”

वे चौंक गए।
देविका समय से पहले लौट आई थी।

देविका उनके पास आई।
उनके चेहरे पर गहरी नमी देखी।
और बिना कुछ पूछे…
बिना कुछ कहे…
धीरे से उनकी हथेली थाम ली।

श्रीधरन उस हाथ को पकड़कर एक लंबी साँस लेते हुए बोले—

“देविका…
कुछ रिश्ते जीवन भर नहीं मिलते,
पर दिल में हमेशा बचे रहते हैं।”

देविका मुस्कुराई।
बस इतना कहा—

“मैं जानती हूँ, श्रीधर…
और मैं आपका हर सावन बनकर आपके साथ खड़ी हूँ।”

बारिश धीमी हो गई थी।
धुंध पहाड़ियों पर गहरा चुकी थी।
चाय के पत्तों पर चाँदी जैसी चमक थी।

डॉ. श्रीधरन ने आसमान की ओर देखा—
जहाँ बादलों के बीच
सूरज की एक हल्की किरण फूट रही थी।

उन्होंने फुसफुसाकर कहा—

“कीर्थना…
आपकी बरस सावन में आज भी मेरे दिल में उतनी ही सच्ची है।”

और फिर
देविका का हाथ थामकर
अंदर चले गए—

जहाँ हक़ीक़त,
संस्कार,
परिवार
और प्रेम
उनका इंतज़ार कर रहा था।

उनके दिल में अब दो मौसम थे—
यादों का सावन,
और हक़ीक़त की धूप।”

✍️ “सुशील कुमार सुमन”
अध्यक्ष, आईओ
सेल आईएसपी, बर्नपुर
*#सुशीलकुमारसुमन*
*#युवा*