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*”संत कबीर: एक सार्वभौमिक चेतना के प्रतीक”*

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ASANSOL DASTAK ONLINE DESK

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“संत कबीर दास भारतीय संत परंपरा के ऐसे अद्वितीय व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने न केवल धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती दी, बल्कि समाज में व्याप्त जाति, धर्म और पाखंड के बंधनों को तोड़ते हुए एक समरस, प्रेममय और सत्यनिष्ठ जीवन का मार्ग प्रशस्त किया।  उनकी वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उनके समय में थी।  उनका जीवन और काव्य हमें यह सिखाता है कि सच्चा धर्म मानवता है, और सच्चा ज्ञान आत्मबोध में निहित है।

कबीर दास जी का जन्म संवत् 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था।  उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम जुलाहा परिवार में हुआ, लेकिन उन्होंने जीवन में किसी भी धार्मिक पहचान को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।  उनका जीवन एक साधक का जीवन था, जो सत्य की खोज में निरंतर प्रवृत्त रहा।

कबीर ने अपने दोहों और साखियों के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि ईश्वर की प्राप्ति न तो मंदिरों में है, न मस्जिदों में, बल्कि वह तो हर जीव के भीतर विद्यमान है।  उन्होंने कहा:

*“मस्जिद ढाए मोलवी, मंदिर ढाए पंडित;*
*कबीर दोनों में नहीं, जो ढाए सो अंधित।”*

इस दोहे में कबीर ने धार्मिक स्थलों को ढहाने की बात नहीं की, बल्कि यह बताया कि ईश्वर की खोज बाह्य आडंबरों में नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों में करनी चाहिए।

कबीर के दोहे सरल भाषा में गहन जीवन दर्शन प्रस्तुत करते हैं। उनके कुछ प्रसिद्ध दोहे:

1. *“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय;*

*ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”*

यह दोहा बताता है कि केवल ग्रंथों का अध्ययन करने से कोई विद्वान नहीं बनता; सच्चा ज्ञान प्रेम में है।

2. *“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर;*

*कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।”*

यह दोहा आडंबरपूर्ण साधना की आलोचना करता है और आंतरिक साधना पर बल देता है।

3. *“बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि;*

*हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।”*

यह दोहा वाणी की महत्ता को दर्शाता है, जिसमें सोच-समझकर बोलने की सलाह दी गई है।

4. *“अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप;*

*अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।”*

यह दोहा संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है, जिसमें किसी भी चीज़ की अति को हानिकारक बताया गया है।

5. *“कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर;*

*ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।”*

यह दोहा निष्पक्षता और सर्वजनहित की भावना को प्रकट करता है।

कबीर ने समाज में व्याप्त जातिवाद, पाखंड, और धार्मिक आडंबरों की कड़ी आलोचना की।  उन्होंने कहा कि ईश्वर की प्राप्ति के लिए न तो जाति का बंधन है, न ही किसी विशेष धर्म का अनुकरण आवश्यक है।  उनका मानना था कि सच्चा साधक वही है, जो अपने भीतर झांककर आत्मा की शुद्धता को प्राप्त करे।

कबीर की भाषा सधुक्कड़ी थी, जिसमें हिंदी, अवधी, ब्रज और फारसी के शब्दों का मिश्रण था।  उनकी शैली सीधी, सरल और प्रभावशाली थी, जो आम जनमानस को सीधे प्रभावित करती थी।  उनकी वाणी में जो तीव्रता और स्पष्टता थी, वह आज भी पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है।

आज जब समाज में धार्मिक असहिष्णुता, जातिवाद और सामाजिक विषमता जैसी समस्याएं व्याप्त हैं, कबीर की वाणी हमें एक समरस और समभावपूर्ण समाज की ओर प्रेरित करती है।  उनकी शिक्षाएं हमें यह सिखाती हैं कि सच्चा धर्म मानवता है, और सच्चा साधक वही है, जो अपने भीतर झांककर आत्मा की शुद्धता को प्राप्त करे

संत कबीर दास न केवल एक संत थे, बल्कि एक सामाजिक सुधारक, कवि और दार्शनिक भी थे।  उनकी वाणी आज भी हमें जीवन के सत्य, प्रेम, और समरसता की ओर मार्गदर्शन करती है।  उनकी शिक्षाएं समय और स्थान की सीमाओं से परे हैं, और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उनके समय में थीं।

“कबीर दास जी की जयंती पर हम उन्हें शत-शत नमन करते हैं और उनके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेते हैं।”

*“सादर प्रणाम 🙏”*

“लेखक: सुशील कुमार सुमन”
अध्यक्ष, आईओए
सेल आईएसपी बर्नपुर