Dastak Jo Pahunchey Har Ghar Tak

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*”‘सोपान’ से ‘दसद्वार’ तक”*

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ASANSOL DASTAK ONLINE DESK

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“पिछले रविवार मैं अपने पैतृक गाँव – बनियारा, हँसडीहा, दुमका, झारखंड गया था। साथ में डाक बम सेवा भी कर आया। मेरे गाँव के ठीक सामने, पूरब दिशा में कस्बा पहाड़ है — वही जगह, जहाँ से सूरज उगता है। बचपन में मुझे सचमुच लगता था कि सूरज यहीं कस्बा पहाड़ से निकलता है और फिर पश्चिम में एक दूसरे पहाड़ के पीछे जाकर छिप जाता है।

ओह!
बचपन की वो यादें… कभी-कभी जब बादल कस्बा पहाड़ को पूरी तरह ढक लेते, तो लगता था जैसे सफ़ेद चादर ओढ़ाकर सूरज को कैद कर लिया गया हो। मैं बाबूजी से कहता — “ये पहाड़ बड़ा ज़ालिम है, सूरज को निकलने ही नहीं देता।” उस रविवार की सुबह भी सूरज कस्बा पहाड़ के पीछे आंख-मिचौली खेल रहा था, लेकिन आज मैं सच्चाई जान चुका था — ठीक वैसे ही जैसे अब मैं जानता हूँ कि मेरे बाबूजी इस दुनिया में नहीं हैं।

उस दिन गाँव जाने का असली कारण भी बाबूजी से जुड़ा था — उनकी पाँचवीं पुण्यतिथि थी। मुझे लग रहा था कि उनकी यादें घर के चारों तरफ़ हवा में घुली हुई हैं। कभी-कभी मुझे “अनिरुद्ध… अनिरुद्ध…” की आवाज़ सुनाई दे जाती थी। दरअसल, अनिरुद्ध मेरे बड़े भाई का नाम है। हमारे गाँव में एक परंपरा है — पति अपनी पत्नी को बड़े बेटे या बेटी के नाम से पुकारते हैं। इसलिए बाबूजी मेरी माँ को “अनिरुद्ध” कहते थे।

27 जुलाई 2020 को बाबूजी हमें छोड़ गए, और सिर्फ़ तीन महीने बाद माँ भी बाबूजी के पास चली गईं। जब तक बाबूजी ज़िंदा थे, उनकी बातें कभी-कभी अच्छी नहीं लगती थीं, लेकिन आजकल जब याद करता हूँ तो लगता है — बाबूजी कितने सही थे।

मेरे बाबूजी — श्री सत्यनारायण जी — बेहद जज़्बाती इंसान थे। गाँव के लोग अक्सर उनका फ़ायदा उठा लेते थे, फिर भी बाबूजी सामने वाले का हौसला नहीं तोड़ते थे। उस दिन मैं उनके सबसे प्यारे खेत में गया, जहाँ हर मौसम में फ़सलें लहलहाती थीं। आज भी फ़सलें थीं, मगर अब बस देखने की चाहत थी, मेहनत करने वाला हाथ नहीं।

बाबूजी पूरे के पूरे किसान थे। खेती के साथ उन्होंने बड़ा खटाल भी खोला हुआ था — गाय और भैंस की भरमार थी। दूध, दही और घी का कारोबार करते थे और इसी में उनका सबसे ज़्यादा मन लगता था। हम मज़ाक में कहते — “बाबूजी, बड़े होकर हम आपका काम कभी नहीं करेंगे।” और बाबूजी हंसकर कहते — “जिस दिन तुम ऐसा करोगे, वो मेरे जीवन का सबसे बड़ा दिन होगा।”

एक बार की बात है — बाबूजी के साथ कस्बा पहाड़ के पास बाबनखेता गाँव में काली मेला देखने गए। मेला घूमते-घूमते किसी जेबकतरे ने बाबूजी की जेब काट ली और पैसे चुरा लिए। अब जो थोड़ा-बहुत बचा, उसी में हमें नाश्ता कराया और घर की ओर निकल पड़े। रास्ते में बाबूजी ने पूछा — “मेला घूमते हुए खाने का मन किस चीज़ का था?” मैंने मासूमियत से कहा — “छिलेबी।” बस, दो हल्के थप्पड़ मारे और बोले —
“सपना हमेशा बड़ा देखो… अगर खाना ही था तो रसगुल्ला क्यों नहीं?”
फिर समझाया —
“सपना हमेशा बड़ा होना चाहिए, और सफल होना या न होना
ऊपरवाले पर छोड़ दो। मेहनत करते रहो, एक दिन सपना ज़रूर पूरा होगा।”

*आज न माँ हैं, न बाबूजी…*
*पर “‘सोपान’ से ‘दसद्वार’ तक!.”*
*उनकी यादें… बस यादें बनकर रह गई हैं।”*

*✍️ कहानीकार: “सुशील कुमार सुमन”*
अध्यक्ष, आईओए
सेल आईएसपी बर्नपुर